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न कोई अपना ,न कोई पराया !
क्या किया
था मैंने.. की सबकुछ छीन लिया ,
बीच मझधार
में मुझे छोड़ दिया।
गिर-गिर कर
भी मैं मांगता रहा सहारा,
न कोई अपना
आया , न कोई पराया।
जब डूब गयी
कश्ती मेरी.. देने को सहारा
...आएं अपना
और पराया।
जब तक था जान
, मन में था खूब विश्वाश,
जीतने की
कोशिश तो की.. पर कम था प्रयास।
अगर खुद न
किया होता ऐसा मज़ाक ,
तो मैं इस
दुनिया में न रहता अनजान।
शहर है अपना
फिर भी वीराना ,
इस समंदर का
दूर है किनारा।
न कोई अपना
,न कोई पराया।
वह वक़्त
कितना खास था ,
जब यार मेरे
पास था।
जीतने की आस
थी , क्योंकि खुशियां मेरे पास थी।
छीन लिया
सबकुछ देकर सारी खुशियां ,
अब क्या
करेगा लेकर मेरी खुशियां.......??
भेज दिया इस
दुनिया में , जो है अनजान
न कोई अपना
आया , न कोई पराया
शहर है अपना
फिर भी पराया।
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